03-11-81  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन

"योद्धा नहीं, दिलतख्तनशीन बनो"

दूर देश में रहने वाले परदेशी बापदादा बोले:-

‘‘आज दूरदेश में रहने वाले परदेशी अपने बच्चों से मिलने आये हैं। बच्चों को भी स्वदेश की स्मृति दिलाने आये हैं। और समर्थ बनाए साथ ले जाने आये हैं। स्वदेश स्मृति में आ गया है ना? यह पराया देश और पराया राज्य है,जिसमें पुराना-ही-पुराना दिखाई देता है। व्यक्ति देखो वा वस्तु देखो सब क्या दिखाई देता है? सब जड़जड़ीभूत हो गये हैं। चारों ओर अंधकार छाया हुआ है। ऐसे देश में आप सभी बंधनों में बंधे हुए बन्धनयुक्त आत्मा बन गये तब बाप आकर स्वरूप और स्वदेश की स्मृति दे बन्धनमुक्त बनाए स्वदेश में ले जाते हैं। साथ-साथ स्वराज्य के अधिकारी बनाते हैं। तो सभी बच्चे अपने स्वदेश में जाने के लिए तैयार हो? वा जैसे आप लोग एक ड्रामा दिखाते हो,स्वर्ग में जाने के लिए चाहते हुए भी कोई विरला तैयार होता है। ऐसे ही बातें बनाकर ''चलेंगे- चलेंगे कहने वाले तो नहीं हो? हिसाब-किताब समाप्त कर लिया है वा अभी कुछ रहा हुआ है? अपने हिसाब-किताब के समाप्ति का समाप्ति समारोह मना लिया है वा अभी तक तैयारी ही कर रहें हो? ऐसे तो नहीं समझते हो कि अन्त में यह समाप्ति समारोह मनायेंगे? समाप्ति समारोह अब से मनायेंगे तब अन्त में सम्पूर्णता समारोह मनायेंगे। यह पुराना हिसाब-किताब समाप्त करना है। वह अब करने से बहुतकाल के बन्धनमुक्त,बहुतकाल के जीवनमुक्त पद को पा सकेंगे। नहीं तो अन्त तक युद्ध करने वाले योद्धा ही रह जायेंगे। जो अन्त तक योद्धा जीवन में रहता उसकी प्रालब्ध क्या होगी? योद्धा जीवन तो बचपन का जीवन है। अब तो स्वराज्य-अधिकारी हो गये। स्मृति का तिलक,बाप के दिलतख्तनशीन हो गये। तख्तनशीन योद्धे होते हैं क्या? युद्ध की प्रालब्ध तख्त और ताज मिल गया। क्या यह वर्तमान प्रालब्ध वा प्रत्यक्षफल प्राप्त नहीं हुआ है? संगमयुग की प्रालब्ध पा ली है वा पानी है? गीत क्या गाते हो? पाना था वह पा लिया वा पाना है? जबकि वर्तमान के साथ भविष्य का सम्बन्ध है तो भविष्य प्रालब्ध 2500 वर्ष है तो क्या वर्तमान प्रालब्ध अन्त के 5-6 मास होगी वा 5 दिन होगी वा 5 घण्टे होगी वा संगम का बहुकाल होगा? अगर संगम युग की प्रालब्ध बहुकाल नहीं होगी तो भविष्य प्रालब्ध बहुकाल कैसे होगी? वहाँ के 2500 वर्ष, यहाँ के 25 वर्ष भी नहीं होगी? डायरेक्ट बाप के बच्चे बन संगमयुग का सदाकाल का वर्सा न पाया तो पाया ही क्या? सर्व खज़ानों के खानों के मालिक उसके बालक बन खज़ानों से सम्पन्न नहीं बने तो मालिक के बालक बनकर क्या किया?

‘‘सफलता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है'' - यह कहते सदा सफलता का अनुभव नहीं किया तो जन्मसिद्ध अधिकारी बनके क्या किया? भाग्य विधाता के दोनों बाप के बच्चे बने फिर भी सदा पद्मापद्म भाग्यशाली न बने तो दो बाप के बच्चे बनके क्या किया? श्रेष्ठ कर्मों की वा श्रेष्ठ चरित्र बनाने की अति सहज विधि वरदाता बनके बाप ने दी फिर भी सिद्धि स्वरूप नहीं बने तो क्या किया? क्या युद्ध करना, मेहनत करना, धीरे-धीरे आराम से चलना,यही पसन्द है क्या? युद्ध का मैदान पसन्द आता है? दिलतख्त पसन्द नहीं है क्या? अगर तख्त ही पसन्द है, तो तख्तनशीन के पास माया आ नहीं सकती। तख्त से उतर युद्ध के मैदान में चले जाते हो तब मेहनत करनी पड़ती है। जैसे कई बच्चे होते हैं, लड़ने-झगड़ने के बिना रह नहीं सकते,और कोई नहीं मिलेगा तो अपने से ही कोई-न-कोई कशमकश करते रहेंगे। युद्ध के संस्कार राज्य तख्त छुड़ा के भी युद्ध के मैदान में ले जाते हैं। अब युद्ध के संस्कार समाप्त करो। राज्य कें संस्कार धारण करो। प्रालब्धी बनो। तब बहुकाल के भविष्य प्रालब्धी भी बनेंगे। अन्त तक योद्धेपन की जीवन होगी तो क्या बनेंगे? चन्द्रवंशी बनाना पडेंगा।

सूर्यवंशी की निशानी - सदा खुशी की रास करने वाले। सदा अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलने वाले। चन्द्रवंशी राम को कब झूले में नहीं झुलाते हैं। रास नहीं दिखाते हैं। युद्ध का तीर कमान ही दिखाते हैं। पीछे का राज्य भाग्य मिलेगा। आधा समय का राज्य बहुकाल तो नहीं हुआ ना! तो सदा झूले में झूलते रहो। सर्व से रास मिलाते हुए,खुशी की रास करते रहो। इसको कहा जाता है - संगमयुग की प्रालब्ध स्वरूप। पुरूषार्थी हैं, यह शब्द भी कहाँ तक?

अभी-अभी पुरूषार्थी,अभी-अभी प्रालब्धी। संगम के पुरूषार्थी, सतयुग के प्रालब्धी नहीं। संगमयुग के प्रालब्धी के बनना है। अभी अभी बीज बोओ, अभी-अभी फल खाओ। जब साइंस वाले भी हर कार्य में प्राप्ति के गति को तीव्र बना रहे हैं, तो साइलेंस की शक्ति वाले अपने गति को उससे भी ज्यादा तीव्र करेंगे ना! वा एक जन्म में करना और दूसरे जन्म में पाना? वे लोग आवाज की गति से भी तेज जाने चाहते हैं। सब कार्य सेकेण्ड की गति से भी आगे करना चाहते हैं। इतने सारे विश्व का विनाश कितने थोड़े समय में करने के लिए तैयार हो गये हैं? तो स्थापना के निमित्त बनी हुई आत्मायें सेकेण्ड में करना,सेकेण्ड में पाना,ऐसी तीव्र गति के अनुभवी नहीं होंगे। तो समझा - अभी क्या करना है? प्रत्यक्ष फल खाओ। प्रत्यक्षफल नहीं अच्छा लगता? मेहनत करने वाला फल अच्छा लगता है? मेहनत का सूखा फल खा के तो ऐसे कमजोर बन गये, नयनहीन, बुद्धिहीन, श्रेष्ठ कर्महीन बन गये। अब तो ताजा प्रत्यक्षफल खाओ। मेहनत को मुहब्बत में बदल दो। अच्छा।

ऐसे सदा राज्य वंश के संस्कार वाले, सदा सर्व खज़ानों के अधिकारी अर्थात् बालक सो मालिक, सदा संगमयुगी प्रालब्धी संस्कार वाले, प्रत्यक्षफल खाने वाले, ऐसे सदा प्राप्ति स्वरूप, सदा सर्व बन्धनमुक्त, संगमयुगी जीवनमुक्त, ऐसे तख्त, ताजधारी बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।''

पार्टियों के साथ पर्सनल मुलाकात

1. सदा रूहानी नशे में स्थित रहते हो? रूहानी नशा अर्थात् आत्म-अभिमानी बनना। सदा चलते-फिरते आत्मा को देखना यही है रूहानी नशा। रूहानी नशे में सदा सर्व प्राप्ति का अनुभव सहज ही होगा। जैसे स्थूल नशे वाले भी अपने को प्राप्तिवान समझते हैं, वैसे यह रूहानी नशे में रहने वाले सर्व प्राप्ति स्वरूप बन जाते हैं। इस नशे में रहने से सर्व प्रकार के दु:ख दूर हो जाते हैं। दु:ख और अशान्ति को विदाई हो जाती है। जब सदाकाल के लिए सुखदाता के, शान्तिदाता के बच्चे बन गये तो दु:ख अशान्ति को विदाई हो गई ना! अशान्ति का नामनिशान भी नहीं। शान्ति के सागर के बच्चे अशान्त कैसे हो सकते? रूहानी नशा अर्थात् दु:ख और अशान्ति की समाप्ति। उसकी विदाई का समारोह मना दिया? क्योंकि दु:ख अशान्ति की उत्पत्ति होती है अपवित्रता से। जहाँ अपवित्रता नहीं वहाँ दु:ख अशान्ति कहाँ से आई। पतित पावन बाप के बच्चे मास्टर पतित पावन हो गये। जो औरों को पतित से पावन बनाने वाले हैं वह स्वयं भी तो पावन होंगे ना! जो पावन पवित्र आत्मायें हैं उनके पास सुख और शान्ति स्वत: ही है। तो पावन आत्मायें,श्रेष्ठ आत्मायें विशेष आत्मायें हो। विश्व में महान आत्मायें हों क्योंकि बाप के बन गये। सबसे बड़े ते बड़ी महानता है - पावन बनना। इसलिए आज भी इसी महानता के आगे सिर झुकाते हैं। वह जड़ चित्र किसके हैं? अभी मन्दिर में जायेंगे तो क्या समझेंगे? किसकी पूजा हो रही है? स्मृति में आता है-कि यह जमारे ही जड़ चित्र हैं। ऐसे अपने को महान आत्मा समझकर चलो। ऐसे दिव्य दर्पण बनो जिसमें अनेक आत्माओं को अपनी असली सूरत दिखाई दे।

2.सदा चढ़ती कला में जा रहे हो? हर कदम में चढ़ती कला के अनुभवी। संकल्प, बोल, कर्म, सम्पर्क और सम्बन्ध सबमें सदा चढ़ती कला। क्योंकि समय ही है चढ़ती कला का, और कोई भी युग चढ़ती कला का नहीं है। संगमयुग ही चढ़ती कला का युग है, तो जैसा समय वैसा ही अनुभव होना चाहिए। जो सेकण्ड बीता उसके आगे का सेकण्ड आया, तो चढ़ती कला। ऐसे नहीं - दो मास पहले जैसे थे वैसे ही अभी हो। हर समय परिवर्तन। लकिन परिवर्तन भी चढ़ती कला का। किसी भी बात में रूकने वाले नहीं। चढ़ती कला वाले रूकते नहीं हैं, वे सदा औरों को भी चढ़ती कला में ले जाते हैं।

प्रश्न :- जो सदा उड़ते पंछी होंगे उनकी निशानी क्या होगी?

उत्तर :- वह चक्रवर्ता होंगे। आलराउन्ड पार्टधारी। उड़ती कला वाले ऐसे निर्बन्धन होंगे जो जहाँ भी सेवा हो वहाँ पहुँच जायेंगे। और हर प्रकार की सेवा में सफलतामूर्त्त बन जायेंगे। जैसे बाप आलराउन्ड पार्टधारी है, सखा भी बन सकते तो बाप भी बन सकते, ऐसी उड़ती कला वाले जिस समय जो सेवा की आवश्यकता होगी उसमें सम्पन्न पार्ट बजा सकेंगे, इसको ही कहा जाता है - आलराउन्ड उड़ता पंछी। अच्छा!